वृन्दावन के दो अनुभव
वृन्दावन के दो अनुभव
ॐ
वृंदावन के दो विचित्र अनुभव
सन 1888 की बात है। स्वामी विवेकानंद तीर्थ-भ्रमण करते हुए आगरा से वृंदावन की ओर पैदल चले आ रहे थे । रास्ते में काफी थक गए थे । बहुत समय से निराहार भी थे । रास्ते में अकेले ही थे । रास्ता सुनसान था । आसपास कोई मनुष्य नहीं था । उन्होंने रास्ते में देखा कि एक आदमी बैठा चिलम पी रहा है । स्वामी जी का मन किया कि वह भी उसकी चिलम के कुछ कश ले । उन्होंने उस आदमी से कहा--" भैया ! कहो तो एक कश मैं भी ले लूँ ।" यह प्रस्ताव सुनते ही वह आदमी घबराया । वह सोच ही नहीं सकता था कि कोई एक संन्यासी इस तरह उससे चिलम का कश भी माँग सकता है । हड़बड़ा कर उसने कहा--" स्वामी जी मैं दे तो दूँ । पर एक परेशानी है । यह चिलम मेरी जूठी है, और मैं हरिजन हूँ । यह सुनते ही स्वामी जी के पुराने संस्कार जाग गए । वे बिना चिलम पिए आगे बढ़ गए । परंतु रास्ते भर उनकी अंतरात्मा उनसे प्रश्न पूछती रही --"तुम कैसे संन्यासी हो ? तुम कहते हो, सभी में एक परमात्मा का निवास है । अब ? वह परमात्मा इस हरिजन में से कहाँ चला गया ? यही है तुम्हारा वेदांत ?
आत्मा की धिक्कार सुनकर विवेकानंद वापस लौटे । काफी दूर तक चले गए थे ; परंतु वापसी की इच्छा के कारण थकान भी याद न रही। वे उसके पास आए । तब तक वह आदमी अपनी चिलम बुझा चुका था । स्वामी जी ने उसके हाथों से चिलम तैयार करवाई और फिर पीकर आगे चले गए । अब उनकी आत्मा पर कोई बोझ नहीं था ।
इसी दौरान वृंदावन में रहते हुए एक और अलौकिक घटना उनके जीवन में घटी । वृंदावन में रहते हुए राधाकुंड नामक स्थान में उन्हें एक विचित्र और अलौकिक अनुभव हुआ । यह स्थान एकांत और मनोरम है। एक दिन जब वे एकमात्र कोपीन पहने हुए थे , तो उन्होंने उस कोपीन को उस कुंड में धोया और सूखने के लिए डाल दिया । फिर वे स्नान के लिए कुंड में उतर गए । बाहर आए तो देखा तो कोपीन गायब था । उन्होंने इधर-उधर देखा । देखकर आश्चर्यचकित रह गए । एक बंदर उस कोपीन को लिए हुए एक वृक्ष की ऊंची डाल पर मजे से बैठा था । विवेकानंद जी को डर लगा । उन्होंने मन ही मन प्रभु से प्रार्थना कि यह बंदर यह कोपीन उन्हें लौटा दे । परंतु प्रार्थना का कोई प्रभाव नहीं हुआ । फिर उन्होंने बंदर की ओर हाथ करके उससे अनुनय विनय की । परंतु बंदर तो बंदर है। उसे तो एक खेल मिल गया । वे जैसे ही बंदर की ओर इशारा करके उससे विनय करते, बंदर उसका जवाब मुंह बना कर देता । बंदर कभी उन्हें चढ़ाता तो कभी घुड़की देता ।
विवेकानंद सोचने लगे कि राधा रानी को उनसे कैसी मजाक करने की सूझी है ! काफी देर बीत गई । अब विवेकानंद के मन में डर बैठने लगा । इस नग्न अवस्था में कहां जाए ? कैसे जाएं ? बुद्धि ने काम नहीं किया । वे नग्न अवस्था में जंगल में घुस गए । सोचा कि वे आजीवन जंगल में ही घुसे रहेंगे । कभी बाहर नहीं आएंगे । तभी उन्हें पीछे से आवाज आई --"लो बाबा ! यह प्रसाद लो और लो अपना कोपीन । परंतु लज्जा के कारण विवेकानंद ने न तो पीछे मुड़कर देखा और न ही मुड़े । आगे ही आगे जंगल की ओर दौड़ते चले गए । परंतु सहायता करने वाला कौन सा कम था ? कुछ कदम आगे चलने पर वह एकाएक स्वामी जी के सामने आ गया । उसके हाथों में एक गेरुआ वस्त्र और प्रसाद था । उसने प्रसाद और वस्त्र स्वामी जी के हाथों में दिया और अचानक अदृश्य हो गया । विवेकानंद वस्त्र को धारण करके वापस उस कुंड की ओर लौटे तो देखा कि कोपीन वहीं सूख रहा था ।
इस अलौकिक अनुभव से उन्हें लगा कि जैसे कोई अलौकिक शक्ति उनके साथ लीला कर रही है । वे राधारानी को स्मरण करके भावविभोर हो गए । वहीं खड़े होकर राधा कृष्ण के प्रेम- गीत गाने लगे । आँखों से भक्ति की ऐसी सरिता बह चली कि जैसे जीवन धन्य हो गया ।
2nd May 2020
वृन्दावन के दो अनुभव
प्रसंग डॉ. अशोक बत्रा की आवाज में
प्रसिद्ध कवि, लेखक, भाषाविद एवम् वक्ता
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