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निडर और अंधविश्वासी विरोधी विवेकानंद

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निडर और अंधविश्वास विरोधी विवेकानंद


निडर और अंधविश्वास विरोधी विवेकानंद

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निडर और अंधविश्वास विरोधी विवेकानंद

मित्रो ! इस वीडियो में मैं आपके सामने विवेकानंद के निडर और जिज्ञासु स्वभाव का वर्णन करने जा रहा हूँ | वह बचपन से ही निडर और अंधविश्वास-विरोधी था ।  वह किसी भी बात पर तब तक विश्वास नहीं करता था जब तक कि उसकी जाँच न कर ले | आखिरकार वकील विश्वनाथ दत्त का पुत्र जो ठहरा !

 

निडर और अंधविश्वासी विरोधी विवेकानंद

निडर और अंधविश्वासी विरोधी विवेकानंद

एक दिन की बात है |  पड़ोस में चंपक का एक विशाल वृक्ष था | बिले ; विवेकानंद का बचपन का नाम वीरेश्वर या बिले था | बिले तथा उसके नटखट साथी दिनभर उसकी टहनियों पर बंदरों की तरह उछल कूद किया करते थे | मालिक उनकी शरारतों और शोर से तंग आ चुका था | परंतु इन शरारती बंदरों से, इन बच्चों से निपटे तो कैसे ? बूढ़े मालिक ने पुराना फार्मूला निकाला | उसने सोचा कि इन बालकों के मन में भूत-प्रेत का डर बैठा दें तो ये भाग जाएँगे | उसने एक दिन बिले और उसके साथियों से कहा --" अरे, रे रे रे रे ! यहाँ कहाँ खेल रहे हो ? इस पेड़ पर तो भूत रहते हैं | वे जिसे चिपट जाते हैं, उसकी जान लेकर ही मानते हैं| तुम यहाँ न खेलने आया करो | भूत प्रेत की बात सुनते ही बिले के कुछ साथी वहाँ से खिसकने लगे | परंतु बिले कहाँ मानने वाला था ? बोला --"मैं तो यहाँ रोज खेलने आता हूँ | अच्छा, यदि आपको यह बात पता थी तो आपने यह बात मुझे पहले क्यों नहीं बताई ?" वृद्ध सज्जन बोले --"बेटा, बात यह है कि कल ही वह भूत मेरे सपने में आया | बोला -- "कोई भी बच्चा मेरी टहनियों पर नहीं चढ़ना चाहिए | चढ़ा तो मैं उसे जान से मार डालूँगा | इसी डर से मैं तुम्हें आज यह बता रहा हूँ |"  बिले को वृद्ध महोदय की यह बात जँची नहीं| बोला --"मुझे तो कभी कोई भूत नहीं दिखाई दिया । मैं तो इस वृक्ष की टहनियों को झिंझोड़ता भी बहुत हूँ | यदि वास्तव में ही कोई भूत- प्रेत होता तो मुझे मारने जरूर आता ।" वृद्ध बोले --"देख लो बेटा! मैं तो तुम्हारे भले के लिए कह रहा हूँ | बाकी तुम्हारी मर्जी |" बिले बोला --"चलो , आज इस पेड़ के भूत से भी दो-दो हाथ हो जाएँ | मैं देखता हूँ कि भूत होता कैसा है ? यह कहते ही बिले वृक्ष पर चढ़ गया और टहनियों पर जोर- जोर से झूलने लगा । वृद्ध महाशय ने माथा पकड़ लिया । बिले के दोस्त, जो पहले खिसक रहे थे , वहीं रुक गए और इस दृश्य का मजा लेने लगे | बिले बोला --"पहली बात तो यह है कि भूत होता ही नहीं है । और फिर होता भी होगा तो उसमें इतनी हिम्मत कहाँ कि मेरे जैसे महाभूत से पंगा ले | वृद्ध महोदय सिर पकड़ कर बैठ गए | और बिले का हौसला बढ़ता चला गया |

निडर और अंधविश्वास विरोधी विवेकानंद

निडर और अंधविश्वास विरोधी विवेकानंद

 

और एक दिन की बात और है |   बिल के पिता विश्वनाथ दत्त अपने कमरे में तरह-तरह के हुक्के  रखते थे | वे हुक्के अलग-अलग जातियों के मुवक्किलों के लिए होते थे |   बिले को यह रहस्य कभी समझ में नहीं आया | एक दिन उसने सोचा कि चलो, इन हुक्कों के रहस्य को भी जान लिया जाए | ये अलग-अलग तरह के  हुक्के क्यों सजे पड़े हैं ? पिताजी कहते हैं हर जाति के लिए अलग हुक्का रखना पड़ता है | तो बिले ने परीक्षण के लिए एक हुक्के को अपनी तरफ सरकाया  | तभी सामने से कोचवान की झलक दिखाई दी | बस बिले की मनोकामना पूरी हो गई | उसने कोचवान से पूछा --"दादा, ये एक ही कमरे में अलग-अलग तरह के हुक्के क्यों रखे हुए  हैं ? कोचवान ने समझाया --" यदि अपनी जाति का हुक्का न पिया जाए तो भगवान नाराज हो जाते हैं, धर्म नष्ट हो जाता है | और जिसका धर्म नष्ट हो जाता है, उसे भगवान मार डालते हैं |"  बिले को यह तर्क कुछ जमा नहीं । सोचा-- लगे हाथ इस बात का परीक्षण क्यों न कर लिया जाए ?

Swami VivekaNanda

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वहाँ अलग-अलग तरह के हुक्के रखे हुए थे | उसने एक हुक्का गुड़गुड़ाया | उसने सुना कि गुड़ गुड़ गुड़ की आवाज आ रही है | फिर उसने दूसरा हुक्का गुड़ गुड़ाया | उसमें से भी ठीक वही आवाज सुनाई दी --गुड़ गुड़ गुड | तीसरे-चौथे पाँचवें  सभी हुक्कों में से वहीं गुड़ गुड़ की आवाज आई |अभी वह छठे हुक्के में गुड़ गुड़ कर ही रहा था कि पिता विश्वनाथ आ गए | उन्होंने देखा तो बालक बिले ठिठक गया | मुस्कुराते हुए पिता बोले --"बिले! यह क्या हो रहा है ?" बिले ने कहा --" पिताजी ! कोचवान तो बता रहा था कि अलग जाति का हुक्का पीने से भगवान नाराज हो जाते हैं |  मैंने तो सारे हक्के पी डाले | न तो भगवान जी नाराज हुए, और न ही मुझे मारा |"

 

 

पिता ने उसे गोदी में उठा लिया और बोले --" ओ शैतान!  तू सारे काम शैतानी वाले करता है ।" बिले बोला--" मुझे तो सारे हुक्के एक जैसे लगे,  तो फिर आदमी अलग-अलग तरह के हुक्के क्यों पीते हैं ?"

 


 

 

विश्वनाथ बोले--"बेटा! कोई फर्क नहीं होता । बस लोग बेकार में यूँ ही फर्क बनाए हुए हैं" | तब जाकर बिले के मन में कहीं यह जिज्ञासा शांत हुई | उसे लगा कि ये व्यर्थ के दिखावे, व्यर्थ के आडम्बर सब बेकार हैं|

 

 

 

 

 

12th April 2020

निडर और अंधविश्वास विरोधी विवेकानंद

प्रसंग डॉ. अशोक बत्रा की आवाज में

प्रसिद्ध कवि, लेखक, भाषाविद एवम् वक्ता

 

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