शिवभक्त स्वामी विवेकानंद
शिवभक्त स्वामी विवेकानंद
ॐ
शिवभक्त स्वामी विवेकानंद
मित्रो ! इस वीडियो में मैं आपको विवेकानंद जी के शिव भक्त रूप के कुछ प्रसंग सुनाने जा रहा हूँ | स्वामी विवेकानंद, जिन्हें लोग नरेंद्र के नाम से और माँ घर में बिले अर्थात वीरेश्वर के नाम से पुकारा करती थी| वीरेश्वर नाम भी इसलिए पड़ा क्योंकि माँ भुवनेश्वरी देवी ने स्वयं भगवान शिव की गहन आराधना करके उनसे यह पुत्र माँगा था | सो बालक बिले में ऊर्जा बहुत थी | उसकी शरारतों में शिव के गणों जैसी निरंकुश ऊर्जा थी | यदि उसे कोई बात समझ न आए तो जब तक उसका समाधान न हो जाए, वह सारी चीजें फेंकने, बिखेरने लग जाता था | एक बात और ! हर बात में सोचना, जाँचना और फिर संतुष्ट होना उसकी आदत थी | परन्तु इस नन्हें से बालक में भगवान शिव का नाम ऐसा जादू पैदा करता था कि उस नाम को सुनते ही वह शांत, ध्यानमग्न और नतमस्तक हो जाता था |
एक दिन की बात है | बिले अपने उत्पात से घर भर को सिर पर उठाए हुए था | दो-दो बड़ी बहनें उसे संभालने के लिए जूझ रही थीं| और वह उन्हें छका रहा था | सहसा वह बहनों से बचने के लिए घर से बाहर भागा और नाली में कूद गया | इससे पहले कि बहनें उसे पकड़ पातीं , उसने खुद को कीचड़ से लथपथ कर लिया | अब बहनें उसे छुएँ कैसे ? लाचार होकर वे उसे देख लेने की धमकी देते हुए घर में जाने लगी | बिले हाथ नचा-नचा कर कहने लगा --"आओ न !आओ न ! मुझे पकड़ो न ! रुक क्यों गईं ? " ऐसी स्थिति में बिले माँ से भी नहीं संभला | वह भी परेशान हो गई | तब माँ के मन में एक युक्ति आई | जैसे भगवान शिव को जलाभिषेक से प्रसन्न किया जाता है, माँ ने उसके सिर पर ठंडा पानी उड़ेला और तीन बार कहा -- शिव शिव शिव । शिव का नाम सुनते ही बालक बिले ऐसे शांत हो गया मानो समाधि में बैठा हो | फिर तो माँ के हाथों में बिले को शांत करने का ब्रह्मास्त्र आ गया | आगे चलकर विवेकानंद भी किसी बुरे प्रसंग से ध्यान हटाने के लिए 'शिव शिव' का उच्चारण किया करते थे और बातचीत का विषय बदल दिया करते थे।
बचपन की एक और घटना है । एक दिन जब बिले ने बहुत ही उधम मचाया तो माँ के मुँह से अचानक निकल गया --" देख बिले ! अगर तू उधम मचाएगा तो भगवान शिव तुझे कैलाश में नहीं आने देंगे | यह सुनते ही बालक बिले के मन पर अद्भुत प्रभाव पड़ा | वह आज्ञाकारी बालक के समान शांत हो गया | शिव परम योगी थे | उनकी ध्यानस्थ मूर्ति का ही यह संस्कार रहा होगा कि बिले बचपन से ही समाधि लगाने को प्रिय खेल समझा करता था | जिस उम्र में बच्चे गली-मोहल्ले में गुल्ली डंडा या छुपम- छुपाई खेला करते हैं, उस उम्र में बिले समाधि लगाकर ध्यानमग्न हो जाया करता था |
एक दिन की बात है | बिले अपने साथियों के साथ खेल-खेल में ध्यान लगा रहा था | अन्य बच्चों के लिए तो वह सचमुच का खेल ही था | इसलिए वे कनखियों से सब कुछ देख रहे थे | उन्होंने क्या देखा कि बिले के सामने एक काला साँप फन उठाए आ खड़ा है | फिर क्या था ! सारे बालक भयभीत हो गए । डर के मारे उन्होंने शोर मचाया और जहाँ रास्ता मिला, उधर भागे | वे भागकर माता भुवनेश्वरी देवी को बुला लाए | माता ने देखा तो दिल धक से रह गया | पर वे क्या करतीं ! उन्होंने मन ही मन भगवान शिव से प्रार्थना की -- "हे शिव ! मेरे बेटे की रक्षा करना । देखते ही देखते साँप रेंगते हुए कहीं चला गया | बाद में बिले के साथियों ने बिले को बताया तो उसे कोई हैरानी या घबराहट नहीं हुई |
इसे भगवान शिव के भोले भंडारी रूप का आकर्षण कहें या योगियों संन्यासियों के प्रति निष्ठा ! बिले बचपन से ही संन्यासियों के प्रति बहुत सहृदय और उदार था | वह जब भी किसी संन्यासी को देखता तो उसे कुछ न कुछ दान दे दिया करता था | हाथ में पिता की उदार दानवीरता तो थी ही | एक दिन उन्होंने एक भिक्षुक को बिल्कुल नया कपड़ा दान में दे दिया | स्वाभाविक था कि माँ उन्हें डांटती | माँ ने भिक्षुक को भी डांटा | बात यहाँ तक तो ठीक थी | परंतु जब आसपास के लोगों ने भिखारियों को नया कपड़ा लेने के लिए डाँटा तो बिले बोला --"आप उन्हें क्यों डाँट रहे हैं ? यह कपड़ा उन्हें मैंने अपनी इच्छा से दिया है | वे नया कपड़ा क्यों न लें ? तंग होकर बिले के माता-पिता ने बिले को ऊपर की मंजिल के एक कमरे में बंद कर दिया |
परंतु 4 वर्ष का यह बिले वहाँ भी बाज़ नहीं आया | उसने वहीं से एक नई धोती बाहर जाते हुए एक साधु को भेंट कर दी | इस प्रकार विवेकानंद जन्म से ही त्यागी और संन्यासी थे |
12th April 2020
शिवभक्त स्वामी विवेकानंद
प्रसंग डॉ. अशोक बत्रा की आवाज में
प्रसिद्ध कवि, लेखक, भाषाविद एवम् वक्ता
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