विवेकानंद खेतड़ी महाराज के संग
विवेकानंद खेतड़ी महाराज के संग
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विवेकानंद खेतड़ी महाराज के संग
मित्रो ! इस वीडियो में मैं आपके सामने विवेकानंद और खेतड़ी महाराज के कुछ रोचक प्रसंग प्रस्तुत करने जा रहा हूँ । नरेंद्र नाथ देश-भ्रमण करते हुए आबू पर्वत की ओर चले। ठौर-ठिकाना अनिश्चित था। इसलिए वे एक गुफा में ठहर गए, चंपा नामक गुफा में ।
संयोग की बात ! एक दिन फैज अली नाम के एक वकील उधर से गुजरे । उनकी नजर इस गुफा में पड़ी तो विवेकानंद का दिव्य तेज़ दिखाई दिया । इससे पहले कि वे गुफा में प्रवेश की इजाजत माँगें, स्वयं स्वामी जी ने उन्हें अंदर बुला लिया । दो ही मिनट की वार्ता में फैज अली को लगा कि वे किसी दिव्य व्यक्ति से भेंट कर रहे हैं । उनके अनसुलझे सवाल सुलझते चले गए । वे अभिभूत हो गए । उन्होंने स्वामी जी से प्रार्थना की कि वे उनके घर पर निवास करें । स्वामी जी ने कहा कि हो सके, तो बस आप इतना कर दें कि इस गुफा के द्वार पर एक दरवाजा लगवा दें । फैज अली ने निवेदन किया मैं अपने राजकीय बंगले में अपने नौकरों के साथ अकेले रहता हूँ । आप मेरे साथ चलकर रहें । मैं आपको कोई असुविधा नहीं होने दूँगा ।जैसा भी कहेंगे प्रबंध कर दूँगा । आपके भोजन की अलग से व्यवस्था करवा दूँगा । स्वामी जी उसका भक्ति भाव देखकर चल पड़े उसके साथ । बोले--" जो तुम खाओगे वही मैं भी खा लूँगा ।"
धीरे-धीरे स्वामी जी की ख्याति सुगंध की तरह फैलने लगी । उन्हीं दिनों खेतड़ी के महाराज अजीत सिंह आबू आए हुए थे । पहले उनके मुंशी जगमोहन को खबर लगी कि कोई चमत्कारी साधु यहाँ डेरा डाले हुए हैं । फैज अली के निमंत्रण पर वे उनके बंगले पर पधारे । दोपहर का समय था । स्वामी जी एक खाट पर विश्राम कर रहे थे । पहले तो मुंशी जी ने उन्हें कोई ढोंगी साधु समझा, जो दिन में भी चादर तान कर सोया हुआ है । परंतु जब बात हुई तो उन्होंने अपनी पूछताछ की शैली में स्वामी जी से प्रश्न पूछा --" स्वामी जी ! आप एक हिंदू संन्यासी हैं । आप एक मुसलमान के घर कैसे ठहरे हुए हैं ?" स्वामी जी बोले --"क्यों, क्या मुसलमान ईश्वर की संतान नहीं है ? महाशय ! मैं एक संन्यासी हूँ । तुम्हारी इस आपत्ति के लिए मैं न ईश्वर से डरता हूँ न शास्त्रों से । ? क्योंकि वे दोनों इसकी अनुमति देते हैं । डरता तो मैं तुम्हारे जैसे सामाजिक पुरुषों से हूँ जिन्हें ईश्वर या शास्त्रों के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं है । मैं तो क्षुद्र-से-क्षुद्र जीव में भी ब्रह्म की अभिव्यक्ति देखता हूँ ।"
उत्तर इतना अग्निमय था कि चौंक गए मुंशी जगमोहन लाल । उनकी चेतना को झटका लगा । उन्हें प्रतीत हुआ कि वे कोई साधारण साधु नहीं हैं । कोई असाधारण महापुरुष हैं । मुंशी जी ने उनसे निवेदन किया --"महाराज अजीत सिंह यहाँ आए हुए हैं । उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ करें ।" विवेकानंद ने पूछा --"मैं उनसे क्यों मिलने जाऊँ ? मुझे न तो उनसे कोई सुविधा चाहिए, न कृपा और न ही कोई पुरस्कार ।" मुंशी जगमोहन बोले--" इस राजपूताने में उन जैसा धर्मप्रिय शासक और कोई इस समय नहीं है । इसलिए वे आपसे मिलकर धन्य होंगे ।
विवेकानंद बोले --"अगर सचिव होने के नाते यह तुम्हारी स्वामिभक्ति नहीं बोल रही तो मैं भी ऐसे राजा से भेंट करना चाहूँगा ।" 4 जून की तिथि तय हो गई । निश्चित दिन स्वामी जी राजभवन में पधारे । स्वयं महाराज अजीत सिंह ने उनकी चरण रज ली । विवेकानंद ने आशीर्वाद देते हुए कहा --" आशीर्वाद लेने से पहले आपने देख तो लिया होता कि यह संन्यासी इस योग्य है भी या नहीं ।" अजीत सिंह बोले --"स्वामी जी! आप तो सर्वथा इस योग्य हैं । भय तो मुझे है कि मैं आपके चरण छूने योग्य हूँ
अथवा नहीं ।"
विवेकानंद प्रसन्न हुए । बोले--" लगता है, मैं ठीक जगह पर आ गया हूँ ।"
महाराज अजीत सिंह ने विनय पूर्वक कहा --"आप में और मुझ में यही तो अंतर है कि आपने अपनी इच्छा से घर-संपत्ति छोड़ दी ; जबकि मैं अपने राजकाज से बँधा हुआ हूँ ।"
विवेकानंद बोले --" संपत्ति के नाम पर भगवान ने मुझे एक नौकरी भी नहीं दी । परंतु फिर भी मुझ पर ईश्वर की असीम कृपा है । उन्होंने मुझे सांसारिक माया से बचाकर रखा । मुझे विवेक, वैराग्य और भक्ति दी ।" अजीत सिंह बोले --" मन तो मेरा भी करता है कि मैं भी राजकाज छोड़कर आपके संग मुक्त विचरण करुँ ।"
विवेकानंद बोले --" मैं ऐसा सुझाव नहीं देता । राजकाज मत छोड़िए । यह राजकाज ईश्वर का दिया हुआ है । आप स्वयं को इसका भंडारी यानी ट्रस्टी मानिए । हाँ, इसका लोभ मत कीजिए । यदि भगवान की भक्ति मिल जाए और उसके लिए राज्य छोड़ना पड़ जाए तो उसके लिए तैयार रहिए ।" अजीत सिंह ने आंख मूँदकर इस आशीर्वाद को शिरोधार्य किया ।
कुछ दिनों बाद विवेकानंद ने महाराजा से आगे यात्रा की अनुमति माँगी । परंतु धर्मप्रेमी अजीत सिंह खुद भी राजपाट छोड़कर उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गए । विवेकानंद ने उन्हें रोका । कहा--" राजन ! अपनी प्रजा को शिक्षित करो । एक-एक बच्चे को पढ़ाने की व्यवस्था में अपनी शक्ति झौंक दो । यदि यहाँ के नागरिक पढ़ने के लिए विद्यालय में नहीं आ सकते तो अपने योग्य शिक्षकों को उनके घरद्वार भेजो । यही तुम्हारी आराधना है।"
महाराज ने जिज्ञासा रखी --"परंतु इतने योग्य शिक्षक कहाँ से आएँगे ?" विवेकानंद ने कहा --"मेरे संन्यासी घर-घर जाकर उन्हें शिक्षा देंगे । वे उन्हें संस्कृत के साथ विज्ञान, गणित और तकनीकी ज्ञान भी देंगे ।" महाराज अजीत सिंह बहुत प्रेरित हुए । जैसे उन्हें जीवन का कोई खोया हुआ अर्थ मिल गया हो । उन्होंने भरोसा दिलाया कि जब भी स्वामी जी किसी कार्य का बीड़ा उठाएँगे तो उनकी धन-सम्पत्ति उनकी प्रतीक्षा करेगी ।
अपना भव्य रूप देखकर समझ आया कि धन का उद्देश्य संचय करना नहीं अपितु व्यक्तित्व का निर्माण करना है । इस प्रकार पिता विश्वनाथ दत्त ने विवेकानंद के व्यक्तित्व-निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
19th April 2020
विवेकानंद खेतड़ी महाराज के संग
प्रसंग डॉ. अशोक बत्रा की आवाज में
प्रसिद्ध कवि, लेखक, भाषाविद एवम् वक्ता
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