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Nanha sa diya

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सामने कुहरा घना है

और मैं सूरज नहीं हूँ

क्या इसी अहसास में जिउं ?

या जैसा भी हूँ नन्हा-सा

इक दिया तो हूँ

क्यूँ न उसी की उजास में जिऊं

हर आने वाला पल मुझसे कहता है –

अरे भाई ! तुम कोई सूरज तो नहीं हो

और मैं कहता हूँ—

न सही सूरज

इक नन्हा दिया तो हूँ

जितनी भी है लौ मुझमें

उसे लेकर जिया तो हूँ

कम से कम

मैं उनमें तो नहीं

जो चाँद दिल के बुझाए बैठे हैं

हर रात को अमावस बनाए बैठे हैं

उड़ते फिर रहे थे जो जुगनू

उनके आँगन में

उन्हें भी

मुट्ठियों में दबाए बैठे हैं |

   अशोक बत्रा !

 

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