कविता है कोमल कुंवारी सुकन्या रिझाती है औ मन को रमाती है कविता |
कभी बांसुरी बन कभी चक्र बनकर कभी शंख बनकर जगाती है कविता |
यों तो वो करती है अठखेलियाँ भी राधा के कपरे चुरा लेती नटखट |
मगर जब दुशासन पट खींचता है लज्जा से गढ़ मर जाती है कविता |
अशोक बत्रा !